राजनीति में खिलिए कमल के फूल की तरह

मेरे जैसे हर आम आदमी को सत्ता हमेशा से अचंभित करती रही है और सत्ता तक पहुंचने का जरिया है राजनीति। तो फिर सत्ता जैसा सुख देने वाली इस राजनीति से अछूता कैसे रहा जा सकता है। अटल जी कहते हैं कि इस राजनीति की राहें रपटीली हैं। लेकिन दीन दयाल उपाध्याय से लेकर सर संघ चालक परम पूज्य मोह भागवत तक अनेका-एक महापुरुष हमें भटकाव से बचा लेते हैं।
दीन दयाल जी को जनसंघ में भेजा गया था जबकि उनकी इच्छा आरएसएस में काम करने की थी। खैर भेजा गया तो चले गए लेकिन मन नहीं लगा। गुरू जी के पास आकर बोले 'मुझे राजनीति रास नहीं आ रही है। मुझे वापस बुला लीजिए।' गुरू जी ने सहज भाव से उत्तर दिया, 'राजनीति रास नहीं आती है, इसीलिए तो भेजा है जिस दिन रास आने लगेगी वापस बुला लूंगा।' दीन दयाल जी को राजनीति कभी भी रास नहीं आई और वह अंतिम सांस तक जनसंघ का काम करते रहे।
यानि एक बात पता चली। अगर राजनीति में जाना है तो उसकी एक शर्त यह है कि राजनीति रास नहीं आनी चाहिए। राजनीति में एकदम कमल के फूल की तरह रहना है। कीचड़ में रहने के बावजूद कीचड़ से एकदम अछूते।राजनीतिक कार्यकर्ता का चरित्र कैसा हो इस बारे में मोहन जी एक बहुत अच्छी कहानी सुनाते हैं।

एक गांव था। बहुत पुराने जमाने की कहानी होगी यह, क्योंकि इसमें लिखा है कि गांव की प्रत्येक झोपड़ी में गृहस्थ लोग हवन करते थे और खेती करके अपना गुजर-बसर करते थे। एक गृहस्थ के घर होम-कुंड में दिन भर हवन होता रहता था। चार बार, पांच बार हवन होता था। फिर शाम को कुंड को साफ किया जाता था।

कुंड को साफ करते समय एक व्यक्ति को अपने घर में सोने का टुकड़ा मिला। सोने का टुकड़ा मिला तो वह गांव में सभी के पास गया- भई किसका है। सभी ने कहा- मेरा तो नहीं है, मेरा तो नहीं है। लोगों ने कहा कि टुकड़ा कैसे मिला भैया। गिर भी जाए तो अंगूठी गिरेगी, गले की माला गिर सकती है, कोई सोने का टुकड़ा जेब में डालकर नहीं घूमता है। तुम्हारे ही घर का होगा।

घर आया तो पत्नी ने बताया कि पापड़ सूखने को डाले थे, आंगने में और मुंह में पान था। तभी घर में कुत्ता आया और वह काठी पटकने से भागा नहीं। चिल्लाती तो थूकती कहां, मैंने देखा कि पूरे आंगन में तो पापड़ पड़े हैं। सोचा कि होम कुंड में तो अब कचरा ही कचरा है। इसे तो अब साफ ही करना है। मैंने वहां थूक दिया, लेकिन रोज शुद्ध सरल मन से होम करने के कारण वह कुंड इतना पवित्र हो गया था कि थूक सोने का टुकड़ा बन गया।

गृहस्थ ने अपनी पत्नी को थोड़ा सा डांटा और कहा कि दोबारा ऐसा नहीं करना। अगले दिन कुंड से फिर सोने का टुकड़ा मिला तो इस बार गांव भर में खोजने की जरुरत नहीं थी। पत्नी के पास गया। लेकिन पत्नी ने कुछ बोलने से पहले ही उसे डांटना शुरू कर दिया। अपने वैवाहिक जीवन को ४० साल हो गए हैं लेकिन तुमने एक सोने का दाना भी बनवा कर नहीं दिया है। अब जबकि घर के होम कुंड में अपने थूक से सोना पैदा कर रही हूं तो तुम्हारा क्या जाता है। मुझे मत डांटो, अगर डांट पड़ी तो कल ही आत्महत्या कर लूंगी।

फिर वह थोड़ा नरम हो गया। ठीक है, लेकिन किसी को बताना मत। अब उसके घर से रोज सोने का टुकड़ा निकलने लगा तो कच्चा घर यानि झोपड़ी गई और पक्का घर आ गया। टाईल्स वगैरा लग गई। उस समय संमृद्धि के जो भी मानक थे, वैसे सारे प्रकट होने लगे। गांव में चर्चा होने लगी। सहेलियां पूछने लगीं।

आखिर कब तक रहस्य बना रहता। छह महीने बाद सभी को पता चल गया। पता चल गया तो हर घर से सोने का टुकड़ा निकलने लगा। लेकिन एक घर बचा रहा, क्योंकि जिस दिन यह बात सबके सामने खुल गई उस दिन उस गृहस्थ ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि जिस दिन मेरे घर में सोने का टुकड़ा निकलेगा उस दिन मैं आत्महत्या कर लूंगा। तुम चुनो तुम्हें सोना चाहिए या पति।

सो उसका घर बचा रहा। बचा रहा यानि क्या, वैसा ही रहा गरीब। अब उसकी पत्नी को रोज दूसरों से ताने सुनने पड़ते थे। साल भर उसने सहन किया। पति तो सुबह नाश्ता करके खेत पर चला जाता था और रात में आकर खाना खाके सो जाता था, गांव वालों के ताने तो पत्नी को सुनने पड़ते थे। साल भर में वह ऊब गई।

उसने कहा कि गांव छोड़ दो, तो पति ने मना कर दिया। यहीं रहना है, ऐसे ही रहना है। एक साल और बीतने के बाद पत्नी ने कहा कि अब और सहन नहीं होता है। अगर गांव नहीं छोड़ते हो तो मैं कल आत्महत्या कर लूंगी। फिर पति राजी हो गया। जो कुछ भी झोपड़ी में था उसे बांधकर दोनों सुबह तड़के निकल पड़े। गांव से थोड़ी दूर जाने के बाद आखिरी बार गांव को देखने के लिए पीछे मुड़े तो देखा कि गांव में आग लगी हुई थी। झगड़ों की आवाजें आ रहीं थी। लोग जोर-जोर से चिल्ला रहे थे। पत्नी ने पूछा क्या हुआ, जब हमने गांव छोड़ा था, तब तो सब ठीक था।

तो उस गृहस्थ ने कहा कि इसीलिए तो कह रहा था कि यहीं रहना है ऐसे ही रहना है। क्योंकि बाकी सारे लोग होम कुंड में थूक-थूक सोना निकालने का पाप कर रहे थे। हम लोग व्रतस्थ थे, उसी के बल पर यह गांव बचा हुआ था। हमने गांव छोड़ दिया तो गांव का पाप गांव को खा रहा है। राजनीति में काम करने वाले कार्यकर्ताऒं को भी यही करना है। वहीं रहना है और व्रतस्थ रहना है। एक बात और-

शपथ लेना तो सरल है पर निभाना ही कठिन है।

साधना का पथ कठिन है, साधना का पथ कठिन है।