लाल कृष्ण आडवाणी बनाम मनमोहन सिंह

प्रधानमंत्री का पद राजनीति शास्त्र का विषय है और कोई इस पद की दावेदारी सिर्फ इसलिए करे कि उसने अर्थशास्त्र की कुछ किताबें पढ़ रखी है या उसे राजमाता का आशीर्वाद मिल गया है, हास्यस्पद लगता है।

वैसे तो आडवाणी जी और मनमोहन सिंह में कोई तुलना नहीं है। लेकिन आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान आडवाणी जी भारतीय जनता पार्टी और एनडीए की ऒर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं जबकि कांग्रेस में भी राहुल गांधी और सोनिया गांधी जीत के आने की स्थिति में मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाने के संकेत दे चुके हैं। तीसरे मोर्चे की बंदरबांट को फिलहाल गंभीरता से न लिया जाए तो ही बेहतर है।

इस तरह हमारे पास प्रधानमंत्री पद के दो गंभीर उम्मीदवार हैं। जाहिर तौर पर दोनों में तुलना भी होगी। तो चलिए शुरूआत करते हैं।आडवाणी मनमोहन सिंह से करीब ५ साल बड़े हैं। आडवाणी जी १९४१ में १४ वर्ष की उम्र में संघ के स्वयंसेवक बन गए और जिस समय मनमोहन सिंह कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी से परास्नातक की डिग्री हासिल कर रहे थे, उस समय आडवाणी जी अलवर, भरतपुर और धौलपुर में अत्यंत विषम परिस्थितियों में राष्ट्र निर्माण के काम में लगे हुए थे। न खाने का ठिकाना था, न रहने का।

मनमोहन सिंह उच्च शि‌क्षा प्राप्त कर रहे थे और अपने भविष्य को सुरक्षित बना रहे थे। इसमें कोई बुराई नहीं है। सभी को ऐसा करना चाहिए। लेकिन आडवाणी जी जो कर रहे थे, वह निश्चित रूप से अधिक श्रेष्ठ था। उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि उनका क्या होगा, भविष्य की जरुरतें कैसे पूरी होंगी, विवाह कैसे होगा और उसके बाद गाड़ी कैसे चलेगी। चिंता थी तो बस एक, देश की। कैसे इस राष्ट्र को एक बार फिर परम वैभव के शिखर तक ले जाया जाए। समाज संगठित हो और सबकी मूलभूत जरुरतें पूरी हों।
इसके बाद मनमोहन सिंह ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और संयुक्त राष्ट्र के साथ काम किया और पूंजीवाद का व्यवहारिक ग्यान हासिल किया। आडवाणी जी को दीनदयाल उपाध्याय का साथ मिल गया और उन्होंने एकात्म मानववाद की शिक्षा पाई। इस दौरान आडवाणी जी सीखा कि पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों ही व्यवस्थाएं अपूर्ण हैं और भारत तथा वैश्विक समस्याऒं का समाधान सिर्फ भारतीय दर्शन में ही मौजूद है। एक का अधिकाधिक पश्चिमीकरण होता गया और दूसरे का भारतीयकरण।

मनमोहन सिंह जी ने अपना सारा जीवन जमीनी हकीकत से अछूते सरकारी दफ्तरों के एसी कमरों में बैठकर बिताया है। दूसरी ऒर आडवाणी जी जमीन पर संघर्ष किया है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल भी गए हैं। लाठियां खाई हैं। सर्दी, गर्मी और बरसात की मार सही है। आडवाणी ही आग में तपे हैं जबकि मनमोहन सिंह के हिस्से में खुशगवार हवाएं ही ज्यादा आई हैं।

यह सही है कि विद्वान की सब जगह पूजा होती है और मनमोहन जी भी पूजनीय हैं, लेकिन क्या सिर्फ इसलिए कि किसी ने अर्थशास्त्र की कई-एक किताबें पढ़ ली हैं, उसे देश का प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है। देश का प्रधानमंत्री कि किसी राजमाता का कृपा पात्र या उनके आदेशों का गुलाम बने तो क्या यह शोभा देता है। यह तो राजा की मर्यादा के खिलाफ है। ऐसा प्रधानमंत्री क्या तेजी से निर्णय कर सकता है।

मनमोहन सिंह अपने पिछले कार्यकाल के दौरान देश के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। देश की जनता अब दोबारा ऐसी गलती नहीं करने जा रही है। आज देश के सामने मंदी, महंगाई, आतंकवाद और आंतरिक सुर‌क्षा जैसे मुद्दे हैं। रसोई गैस समय पर नहीं मिल रही है, राममार्गों के निर्माण का काम ठप पड़ा है और काला बाजारी के कारण आटा, दाल, चावल की कीमतें आसमान पर चढ़ गईं हैं। उस पर यह सरकार कह रही है कि अब महंगाई दर शून्य के करीब पहुंच गई है। मनमोहन जी अर्थशास्त्र की किताबों से निकल कर जरा बाजार में देखिए कीमतें जस की तस हैं।

आडवाणी जी ने जो कुछ सीखा है जीवन की किताब से सीखा है। उनका ग्यान व्यवहारिक है। गरीबी और भूख क्या होती है, यह जानने के लिए उन्हें बीपीएल जैसे जुमलों की जरुरत नहीं है। उन्होंने भूख देखी भी है और बर्दास्त भी की है। वह एक दृढ़ निश्चयी और मजबूत नेता हैं। उनका कोई विकल्प है ही नहीं।